Published on October 31, 2021 7:19 pm by MaiBihar Media
नाई से भोजपुरी नाटककार बने भिकारी ठाकुर का 50 साल पहले निधन हो गया। उनके गीतात्मक, कभी बेहद लोकप्रिय नाटक आज भी गूंजते हैं। जिसने वर्षों तक एक बेतहाशा सफल नृत्य-नाटक मंडली चलाई, भोजपुरी नाटकों और गीतों को पूरी तरह से कविता में लिखा, और अपने प्रदर्शन से हजारों लोगों को आकर्षित किया। पगड़ी में एक गंभीर दिखने वाला और मोटे-मोटे चश्मे वाला आदमी, उनकी एक ही तस्वीर इंटरनेट पर मिलती है।
भिखारी ठाकुर का जन्म 1887 में बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर गांव में नाइयों के एक गरीब, निचली जाति के परिवार में हुआ था। वे अपने पिता के कार्यों को करते हुए, बाल काटते और दाढ़ी मुड़ते हुए अपना जीवन व्यतीत कर सकते थे। लेकिन लेखक और विद्वान राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में वह “भोजपुरी के शेक्सपियर” बन गए। 10 जुलाई को उनकी 50 वीं पुण्यतिथि थी।
भिखारी ठाकुर की कहानी भी उनके गांव और उनके परिवार की कहानी है। वर्षों से, कुतुबपुर सूखा, बाढ़, बीमारी से तबाह हो गया था। कभी-कभी केवल एक समय के भोजन के लिए पर्याप्त भोजन होता था , तो कभी-कभी वह भी नहीं। लोगों के पास बड़ी संख्या में गांव से भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। 1914 में ठाकुर 27 वर्ष की उम्र में विवाहित थे और उनके दो बच्चे थे। उस साल भयंकर आकाल पड़ा। वो काम की तलाश में अपने चाचा के यहाँ खड़गपुर गए। खड़गपुर से पुरी और फिर पुरी से कोलकाता गए। वहाँ वो देखते हैं कि बिहारी, बंगाली और उड़िया सब छोटे छोटे कमरों में रहते हैं। कोई रिक्सावला है, कोई कुली तो कोई मजदुर। दिन के वक्त भिखारी ठाकुर अपने परम्परागत कार्य बाल काटना, दाढ़ी बनाना इत्यादि करते थे और रात के समय अपने बिहारी बंधुओं के साथ धार्मिक कथाओं का वाचन करते थे।
पहली बार उनको यहाँ एहसास हुआ की जिस देश में वो रहते हैं उसका नाम हिंदुस्तान है और अंग्रेज इसे चलाते है। इस समय ठाकुर को मुश्किल से हिंदी आती थी और यही पर उन्होंने पहला सिलेमा (सिनेमा) देखा। यहाँ वो बाबूलाल से मिले जो बिहार से थे और एक नृत्य गृह चलाते थे। ये दोनों में एक अच्छी मित्रता हो गयी और दोनों पेशेवर साझेदार बन गए।
इस दौरान वो ऐसे लोगों से मिलते हैं जो काम की तलाश में अपना सब कुछ पीछे छोड़ आये हैं। सिर्फ अपने गांव, माता पिता, पत्नी और बच्चों के यादों के सहारे अपना जीवन काट रहे हैं। उनकी सबसे लोकप्रिय नाटकों में से एक है “विदेशिया”। यह एक ऐसे युवक की कहानी है जो काम के तलाश में कलकत्ता जाता है । गांव में पत्नी के रहते उसे कलकत्ता में एक दूसरी महिला से प्रेम हो जाता है । एक और लोकप्रिय नाटक है “बेटी बेचवा “। इसमें तत्कालीन समय के रिवाज़ तो दिखाया गया है जिसमे पिता अपने बेटियों की शादी ज्यादा उम्र के बुजुर्गो से पैसे की लालच में कर देते थे ।
ठाकुर की कीर्ति फैलनी लगी। वो कोयला खदानों में काम करने वाले प्रवासियों के लिए प्रदर्शन करने के लिए वर्तमान झारखंड में झरिया की यात्रा किये। फिर वह पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार में, आरा से गोरखपुर, बलिया, जौनपुर, असम के डिब्रूगढ़ तक भ्रमण किये और अपने नाटकों को वहाँ की जनता के सामने प्रस्तुत किया ।
लेकिन अपने काम और प्रदर्शन के चक्कर में ठाकुर ने परिवार और दोस्तों को खो दिया। वे जब यात्रा कर रहे थे, उनकी माता का देहांत हो गया। 1946 में, उनके गांव में हैजा फैला और उनकी पत्नी ने , मंटुर्ना देवी, बीमारी के कारण दम दिया। अपने अंतिम क्षणों में, वह अपने पति के लिए पूछती रही लेकिन सबका दर्द समझने वाला वहाँ नहीं था।
पर फिर भी वो रुकते नहीं हैं। वो अंग्रेजी में कहते है न की “शो मस्ट गो ऑन”, ठाकुर ने वही किया। नीची जाती होने के कारण और महिलाओं के कपडे पहन कर मंच पर नृत्य करने के लिए ठाकुर तो बहुत तिरस्कार सहना पड़ा पर फिर भी अपना काम अपने अंत समय तक भली भांति करते रहे। ठाकुर ने अपनी आखरी साँस अपने गांव कुतुबपुर में ली । आज भी उनके बहादुरी और पराक्रम की गाथा होती है ।